Sunday, April 19, 2009

du:swapna

बड़ी सर्द हैं ये यादें जो ठिठुरने भी नहीं देती हैं
अक्सर चढ़ जाती हैं सवालों की सीढियां,
तो जवाबों के पदचाप सुन उतरने नहीं देती हैं ।

मैं औकात में आकर उनके दो हिस्से कर देता हूं,
खुशनुमा को रजाई व स्याह को मफलर सा बना लेता हूं
करवटों की लैम्प पोस्ट पर खुद को थामता, हांफता, भांपता हूं ।

और रेगिस्तान को तलाशता मीलों निकल जाता हूं,
गर्म रोशनी के जेहन में घुसने तक नहीं समझ आता
कि सेहरा भी सर्दियों में सर्द होता है ।


तभी टेबल ठक से कर उठता है, मां कहती है चाय पी लो!
मैं रजाई-वजाई, मफलर-वफलर फेंक मां से लिपटकर,
अगले दिन के लिए रात तलाशने निकल पड़ता हूं ।

Monday, April 13, 2009

prajatantra

गोदी में लिए बच्चा, आंचल मुंह में ठूंसकर
वह मांगती चिल्लर, मरीन ड्राइव के पथ पर.


हवा खाते चंद खुसट और चिपटे प्रेम पंक्षी
ताके नाक-भौंह सिकोड़कर
जब वह मांगती चिल्लर, मरीन ड्राइव के पथ पर.


सिगरेट पीते मुम्बईया छोरे
फिकरे कसे तानकर
फिर भी वह मांगती चिल्लर मरीन ड्राइव के पथ पर.



उत्साह से लबरेज अंग्रेज
खुश होते क्लिक-क्लिक कर
जो वह बीनती चिल्लर मरीन ड्राइव के पथ पर।


डेमोक्रेसी थी निराला जब लिख गए थे तुम
अब पत्थर फोड़े मशीनें, फौरन से पेश्तर
इसलिए वह मांगती चिल्लर मरीन ड्राइव के पथ पर.

Saturday, April 11, 2009

nagarnama

कभी न थमने वाला सफर हूं

पसीजी रात के बाद का प्रहर हूं,

हरे-भरे, घने-बने जंगलों पर

इमारतें बोता कहर हूं

मैं महानगर हूं, मैं महानगर हूं.

सड़कों पर पड़ी है तहजीब

ढूंढता अपने घर हूं,

देश अब नहीं भाता तो

विदेश की डगर हूं

मैं महानगर हूं, मैं महानगर हूं.

बीघों पड़ी वीरान जिंदगी

नापता फीट स्कैवयर हूं,

सिक्कों के शोर में बह रहे

खालिस जज्बातों की नहर हूं

मैं महानगर हूं, मैं महानगर हूं.

aajkal

मेहमां को गिला है उसे रूखसत नहीं मिली
मेजबां की जिरह है उसे फुर्सत नहीं मिली

नींदों ने ढूंढा लाख पर करवट नहीं मिली
भरसक वो दौड़ थी पर सरपट नहीं मिली

Friday, April 3, 2009

chakra

चाक पर टपका पसीना, माटी गीली हो गई.
लाज का दीया गढ़ने में वो नीली-पीली हो गई.

ख्वाब के गढ़हों में घुसी आँखें, पर नम नहीं,
पेट कुछ भी कराए, वरना खूबसूरत कम नहीं.


वक़्त क़ी गुल्लक में भरती थी लम्हों के चिल्लर
दिन बिताती खुशियाँ खोज, रातें दर्द काटकर.


फिर इक सर्द रात, रात का खुमार छाया
चाँदनी में लिपटा चाँद कुमार आया.

चाक चलता रहा, माटी आकार तलाश रही थी
शरीर छोड़ जिंदगी गगन में उल्लास रही थी.

Thursday, April 2, 2009

takaazaa

अर्र की आवाज़ आई घोंसला बिखर गया,
तिनका-तिनका उड़ के जाने किस डगर गया.

चूजे को संभाले गौरैया भी गिरी धम्म से
आसमान के ख्वाब जमींदोज हुए झम्म से.

फिर वक़्त की हवा चली तो धूल जख्म पाट गई,
पर इंसानी आरी एक पेड़ काट गई.