बड़ी सर्द हैं ये यादें जो ठिठुरने भी नहीं देती हैं
अक्सर चढ़ जाती हैं सवालों की सीढियां,
तो जवाबों के पदचाप सुन उतरने नहीं देती हैं ।
मैं औकात में आकर उनके दो हिस्से कर देता हूं,
खुशनुमा को रजाई व स्याह को मफलर सा बना लेता हूं
करवटों की लैम्प पोस्ट पर खुद को थामता, हांफता, भांपता हूं ।
और रेगिस्तान को तलाशता मीलों निकल जाता हूं,
गर्म रोशनी के जेहन में घुसने तक नहीं समझ आता
कि सेहरा भी सर्दियों में सर्द होता है ।
तभी टेबल ठक से कर उठता है, मां कहती है चाय पी लो!
मैं रजाई-वजाई, मफलर-वफलर फेंक मां से लिपटकर,
अगले दिन के लिए रात तलाशने निकल पड़ता हूं ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अपने मनोभावों को सुन्दर शब्द दिए हैं।बधाई।
ReplyDeleteshukriyaa sir jee....
ReplyDeleteअहसासों की सुन्दर अभिव्यक्ति!! बधाई!
ReplyDeletedhanyawaad sir jee.....
ReplyDeleteexcellent work hai...I love the stuff and the way of writing...really excellent!!
ReplyDeleteshukriyaa sir...jee....
ReplyDeleteबहुत ही उम्धा लिखा है मित्र...कुछ पंक्तियाँ मैं भी जोड़ देता हूँ... बिना इज़ाज़त के...
ReplyDeleteसर्द हवाएँ फिर से पसारने लगी हैं... हो सके तो गर्म कपड़े अंदर से फुल आस्तीन की बुश्कट ज़रूर पहन लेना...
क्यूंकी रात अब गहराने लगी है... सर्द हवाएँ बहने लगी हैं... सुनील शिवहरे
aapki soch ke ki pahunch chitij tak jaati hui maloom hoti hai....dil ko choone wali kavita hai ye.
ReplyDelete..raag
thnk u sunil bhai...
ReplyDelete