Saturday, April 11, 2009

nagarnama

कभी न थमने वाला सफर हूं

पसीजी रात के बाद का प्रहर हूं,

हरे-भरे, घने-बने जंगलों पर

इमारतें बोता कहर हूं

मैं महानगर हूं, मैं महानगर हूं.

सड़कों पर पड़ी है तहजीब

ढूंढता अपने घर हूं,

देश अब नहीं भाता तो

विदेश की डगर हूं

मैं महानगर हूं, मैं महानगर हूं.

बीघों पड़ी वीरान जिंदगी

नापता फीट स्कैवयर हूं,

सिक्कों के शोर में बह रहे

खालिस जज्बातों की नहर हूं

मैं महानगर हूं, मैं महानगर हूं.

5 comments:

  1. रचना के भाव बहुत अच्छॆ है। बधाई।

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  2. चकाचौंध मे डूबी दुनियाँ पर जीवन का सार यही।
    कमी समय की महानगर में भाव खतम हैं प्यार नहीं।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  3. maa kasam kya likha hai yaar. Gazab hai bhai.kya likha hai. theek to hai, tabiyat to kharab nahi naa.

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  4. great ..............vah re mahanagar

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