Friday, April 3, 2009

chakra

चाक पर टपका पसीना, माटी गीली हो गई.
लाज का दीया गढ़ने में वो नीली-पीली हो गई.

ख्वाब के गढ़हों में घुसी आँखें, पर नम नहीं,
पेट कुछ भी कराए, वरना खूबसूरत कम नहीं.


वक़्त क़ी गुल्लक में भरती थी लम्हों के चिल्लर
दिन बिताती खुशियाँ खोज, रातें दर्द काटकर.


फिर इक सर्द रात, रात का खुमार छाया
चाँदनी में लिपटा चाँद कुमार आया.

चाक चलता रहा, माटी आकार तलाश रही थी
शरीर छोड़ जिंदगी गगन में उल्लास रही थी.

4 comments:

  1. baba bahut hi umda hai./....
    meri sari shubhkamnayein...........

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  2. yaar tu to ekdum UP waala aadmi hai, aur ye kya moh maya se virakti waali baat karta hai.

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